શુક્રવાર, 5 જુલાઈ, 2013

60 SAL KE BAD KA BHARAT

आँखों में यहीं सुलगते, सवाल खड़े हैं |                                                      
कुछ लोग हीं क्यों देश में , खुशहाल खड़े हैं ?                                                
                                                                                                     
पैंसठ बरस के बाद भी, इन्साफ के लिए                                                     
क्यों आम लोग हीं यहाँ, फटेहाल खड़े हैं ?                                                   
                                                                                                   
कौड़ी का आदमी था ,संसद गया जबसे ,                                                  
सुना शहर में उसके, कई माँल खड़े हैं |                                                     
                                                                                                   
किस भाँति देश बेचना, तरकीब सोचते ,                                                  
पग-पग पे यहाँ देखिये, दलाल खड़े हैं |                                                  
                                                                                                 
कुर्सी की साजिशों का, परिणाम देखिये ,                                                  
सर्वत्र जाति-धर्म के, दीवाल खड़े हैं |                                                      
                                                                                                 
कैसे उगेगा प्यार का पौधा, बताइए ,                                                      
दिल में घृणा के बरगद, जब पाल खड़े हैं                                                  

સોમવાર, 1 જુલાઈ, 2013

यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं--http://naisadak.blogspot.in/2007/10/blog-post_2763.html


यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

बहुत अच्छी सड़क है
घर में है बिजली
फिर वो क्यों अपने
घर में दबा सहमा है
कोई गरीब नहीं
सब अमीर हो गए
फिर वो क्यों अपनों
से खौफज़दा है

गुजरात में कितना कुछ है
पांच करोड़ गुजराती खुशहाल हैं
फिर क्यों पांच करोड़ में
मुसलमान शामिल नहीं है
अहमद की आंखों में इनदिनों
वो खौफ का मंज़र क्यों हैं
ज़ुबेर की ज़बान पर इनदिनों
इस बार अल्लाह खैर करे
हर बार क्यों हैं

दूर से चमकता है गुजरात
अच्छा लगता है गुजरात
इतना विकसित गुजरात का
इतना छोटा सा दिल क्यों है

मोदी को सिर्फ नज़र आता है
विकास और पांच करोड़
इस तंगदिल नेता का गुरूर
कुछ कम होता क्यों नहीं है

गया गुजरा नहीं गुजरात
चालीस करोड़ हिंदुस्तानियों के लिए
एक गांधी निकला था गुजरात से
उसी गुजरात से अब निकला मोदी
सौ करोड़ को डराता क्यों है
पांच करोड़ की बात कर
यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

अहमदाबाद ravish kumar


अहमदाबाद

अहमदाबाद
दंगों के बाद का शहर
पतली टांगों में फंसी जिन्स का शहर
लिवाइस जीन्स का खरीदार शहर
मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
वह नया ब्रांड पहनता है
जैन पिज़्‍ज़ा खाता है
और नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

मोदी पर मंत्रमुग्ध है शहर
मॉल के माल पर मालामाल है शहर
गोधरा से पहले और बाद के दंगों से भागता
एक्सक्लेटर से गड्ढे में उतरता एक कतराता शहर
सब दोषी है
लेकिन पहले वो दोषी हैं
गोधरा के बाद ही हम दोषी हैं
हिसाब किताब करता एक अच्छा सा साहूकार शहर

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है
प्लाईओवर पर भागता रहता है
हवाई जहाज़ में छुपता रहता है
स्टाक एक्सचेंज में गिरता चढ़ता है
कांग्रेस को गरियाता
मोदी को मर्द बताता है

अहमदाबाद

दंगों में मारे गए लोगो के लिए रोता नहीं है
रात भर नाचता रहता है
जासूस की निगाहों से बचता हुआ
जल्दी से कहीं रात गुजार देता है
नवरात्रा में कंडोम की बिक्री बढ़ाता है

अहमदाबाद

हादसों को भूल जाने वाला शहर
हादसे के बाद घर में छुप जाने वाला शहर
मर्दानगी ढूंढता रहता है नेता में
वह मोदी को पसंद करता है
बिजली पानी की कमी नहीं
वह एक मर्द को ढूंढता रहता है
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं है

अहमदाबाद

एक ही तो नेता हुआ है शहर में
गोधरा के पहले का सच
गोधरा के बाद का सच
कभी एक से छुपता है
तो कभी एक से भागता है
मर्दों की मर्दानगी वाले इस शहर में
सिर्फ एक ही मर्द क्यों मिलता है
अहमदाबाद
दंगों में मारे गए लोगों के लिए रोता नहीं हैं

मोदी का भाषण-मोदी का राशन-ravish kumar


मोदी का भाषण-मोदी का राशन


बिना भाषण के राजनीति का राशन नहीं चलता। लेकिन हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी ने भाषण को कुछ इस तरह से महत्वपूर्ण बना दिया है कि उनके कथनों की एक एक पंक्ति की समीक्षा होने लगती है। ये शुरूआत संगठित रूप से मोदी के इंटरनेट पर मौजूद चंद समर्थकों ने ही की है। जैसे ही नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भाषण देते हैं एक किस्म का मैच छिड़ जाता है। जीताने हराने की शैली में बातों की मीमांसा की जाने लगती है। हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी ने दिल्ली और कोलकाता में चार या पांच बार भाषण दिये हैं। वो जहां जाते हैं गुजरात में अपने विकास कार्यों को लेकर भारत के बारे में एक सपना रचते हैं। देश के स्तर पर स्वपन देखने की राजनीतिक प्रवृत्ति भौगोलिक खंडों के राष्ट्र राज्यों में उदय होने के साथ चली आ रही है। शासक खुद को युगदृष्टा के रूप में पेश करना चाहता है। न भी करे तो उसकी बात को इस नज़र से भी देखा ही जाता है। इसके लिए हर नेता अपने पसंद से किसी कालखंड का चुनाव करता है और उसे गया गुज़रा या स्वर्णिम बताते हुए तथ्यों और मिथकों को मिलाकर ऐसी तस्वीर खींचता है कि आपको अपना वर्तमान भी अजनबी जैसा लगने लगता है।

नरेंद्र मोदी के भाषणों की शैली की बहुत चर्चा होती है। सार्वजनिक जीवन में अच्छे वक्ता की शैली भी देखी जाती है। लेकिन राजनीति का इतिहास बताता है कि सिर्फ शानदार शैली वाले नेताओं ने नहीं बल्कि साधारण कद काठी और शैली वाले नेताओं ने भी गहरा प्रभाव डाला है। इसलिए शैली पर ज़ोर देने से समस्या यह होती है कि लालू प्रसाद यादव की शैली याद आ जाती है। वो अपनी शैली के कारण ही बिहार की सत्ता में पंद्रह साल काबिज़ रहे और नवीन पटनायकशीला दीक्षित या शिवराज सिंह चौहान अपनी भाषण शैली के साधारण होते हुए भी जनता के बीच विकास के चुनावी पैमाने पर पसंद किये जाते रहे हैं। मनमोहन सिंह की भाषण शैली तो राजनेता की लगती ही नहीं है। इन सबके बीच नरेंद्र मोदी एक खास शैली का खाका बनाये रखते हुए मंच लूट ले जाते हैं। शैली में मीडिया और मंच के नीचे मौजूद श्रोता की दिलचस्पी ज्यादा रहती है लेकिन नेता खासकर नरेंद्र मोदी जैसे नेता को मालूम रहता है कि लोग उन्हें गौर से सुन रहे हैं इसलिए उनकी नज़र सिर्फ शैली पर नहीं बातों पर भी है।

नरेंद्र मोदी के भाषणों में स्पष्टता इसलिए है कि प्रशासन और उपलब्धियों का लंबा अनुभव है । वे भरोसे के साथ अपने काम का प्रदर्शन करते हैं। भारत के बारे में क्या सोचते हैं वे खुलकर सामने रखते हैं। तभी उनकी बातों की आलोचना और सराहना घनघोर तरीके से होती है। उनके हाल के चार पांच भाषणों को बार बार पढ़ने के बाद यह लिख रहा हूं कि वे अपने पसंद का कालखंड चुनते हैं और उनका महिमंडन करते हैं या धज्जियां उड़ा देते हैं। पिछले कई भाषणों में उन्होंने कहा है कि गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां किसानों को मिट्टी की जांच के लिए हेल्थ कार्ड दिया गया है। निश्चित रूप से उन्हें सिर्फ गुजरात के बारे में बात करने का हक है लेकिन यह जताने का भाव नहीं होना चाहिए कि हेल्थ कार्ड सिर्फ गुजरात में दिया गया है। मिट्टी जांच के लिए हेल्थ कार्ड गुजरात के अलावा पंजाबहरियाणा,कर्नाटक,उत्तर प्रदेश बिहार और आंध्र प्रदेश में भी दिये गए हैं। जब वो गुजरात के पर्यटन सेक्टर में डबल डिजिट ग्रोथ की बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि गुजरात ने बड़ा बदलाव किया है। तुलनात्मक रूप से किया होगा मगर २०११ के केंद्रीय आंकड़े के अनुसार आज भी मध्यप्रदेश में घरेलु पर्यटक गुजरात से ज्यादा आते हैं। मध्यप्रदेश और बिहार ने भी पर्यटन के क्षेत्र में डबल डिजिट ग्रोथ हासिल किया है। सबसे ज्यादा यूपी और आंध्र प्रदेश में पंद्रह करोड़ लोग जाते हैं। गुजरात में दो करोड़ से कुछ ज्यादा घरेलु पर्यटक गए हैं। सवाल है कि आप अपनी उपलब्धियों की पैकेजिंग कैसे करते हैं। आंकड़ों का आधार क्या है। क्या हम इस तरह से नेताओं के भाषण को देखते समझते हैं। यह सवाल खुद से पूछना चाहिए।

गौर से देखेंगे तो राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की बातें कई जगहों पर मिलती जुलती लगती हैं। जैसे राहुल गांधी कहते हैं कि एक अरब आवाज़ को सिस्टम में जगह देनी है। ऐसा सिस्टम बनाना है जिसमें व्यक्ति की अहमियत न रहे और सिस्टम इस तरह से चले कि सबको न्याय मिले। नरेंद्र मोदी भी फिक्की की महिला उद्योगपतियों से कहते हैं कि पचास फीसदी आबादी को आर्थिक विकास की प्रक्रिया से जोड़ने के बारे में सोचना होगा। राहुल गांधी की तरह वे भी गुजरात की औरतों की कामयाबी के किस्से चुनते हैं। इस ईमानदारी से स्वीकार करते हुए कि इन किस्सों में गुजरात सरकार का कोई योगदान नहीं है वे बताने का प्रयास करते हैं कि आम आदमी संभावनाओं के इंतज़ार में नहीं है बल्कि वो इस्तमाल करने लगा है। ज़रूरत है तो एक सिस्टम बनाकर उसे धक्का देने की।

मोदी एक मामले में साहसिक नेता है। पार्टी के भीतर ही इतने विरोध के बावजूद वो दिल्ली आने की सभी कोशिशों में कामयाब हो जाते हैं। पार्टी के बाकी नेता जहां चुप हैं वहां वे खुलकर खुद को प्रोजेक्ट करते हैं। प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं कहते लेकिन तब तक वे चुप क्यों रहे। इसका मतलब है कि वे सत्ता के लिए आतुर हैं। उन्होंने जो सोचा है उसे करने के लिए सत्ता ही चाहिए ये प्रदर्शित करने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हाल के बयान के संदर्भ में मोदी को देखा जाना चाहिए। शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि अच्छे कामों को प्रचार की ज़रूरत नहीं है। प्रधानमंत्री पद की बात करने से बीजेपी का मज़ाक उड़ रहा है। शिवराज सिंह चौहान से पूछा गया कि वे ट्विटर पर आए हैं क्या उनके समर्थक भी अब प्रचार में जुट जायेंगे तो शिवराज तुरंत कहते हैं कि मेरे समर्थक क्या होते हैं। जो भी समर्थक हैं वो बीजेपी के हैं और मैं उनमें से एक हूं। शिवराज सिंह चौहान अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के प्रति अपने सम्मान को विनम्रता से ज़ाहिर करने में संकोच नहीं करते लेकिन मोदी की शैली में मैं मैं और मेरा गुजरात ज्यादा प्रमुख हो जाता है। एक ही पार्टी के दो प्रमुख नेताओं की शैली में इतना अंतर है।

फैसला जनता को करना है। उसके पास बहुत सारे विकल्प हैं। मोदी खुद को एक विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। खूब बोल रहे हैं। दांव पर लगाने वाले को ही पता चलता है कि वो जीता या हारा। मगर राजनीति में चुप रहकर काम करने वाले नेताओं की कामयाबी के किस्से अभी सुनाये नहीं गए हैं। ज़रा इन्हें भी सुनने की तैयारी कीजिए। लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही हर भाषण दूसरे पर भारी पड़ेगा। व्यक्तिवाद या विचारवाद इसकी लड़ाई नरेंद्र मोदी ने छेड़ दी है। फैसला आना बाकी है।
(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)

लघु प्रेम कथा ( लप्रेक ) -ravish kumar


लघु प्रेम कथा ( लप्रेक )

सुनो तुम फ़ेसबुक में सारी बातें क्यों लिख देते हो ? क्यों ? वहां कही गई आधी बातें मेरे लिए थीं और मुझसे कही भी नहीं गईं । जब भी तुम्हारे पास होती हूँ तुम ख़ाली होते हो । अरे नहीं । देखो न आज की ये शाम, ये मौसम और हाँ अख़बार में छपी ये तस्वीर । आइसक्रीम आर्डर करूँ ? कितना कुछ है बात करने को । मैं उन बातों की बात नहीं कर रही । तुम्हारे सारे अहसास मुझ तक पहुँचने से पहले बंट चुके होते हैं । तुम्हारी कल्पनाएँ कहीं और उतर चुकी होती हैं । जिनमें मैं भी होती हूँ और कई बार कोई और । तुम ऐसा क्यों सोचती हो । ख़ाली तो तुम भी हो । दरअसल हमदोनों हैं । नहीं तुम हो । शायद कुछ मैं भी । पहले हम चुप रह कर घंटों बातें किया करते थे और अब घंटों बातें कर चुप्पी सी लगती है । 
(२)
मैंने एक रेखाचित्र खींची है । तुम्हारे साथ इस शहर में चलते हुए । हाँ देख रही हूँ । हर रास्ता दूसरे से लिपटा हुआ लगता है । हाँ हर रास्ता उलझा हुआ भी । जब भी मैं इस शहर से निकलना चाहता हूँ कोई न कोई रास्ता लौटा लाता है । मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा देखती हूँ । हर बस की पहली सीट पर तुम्हीं बैठे लगते हो । अब हम कम चलते हैं न ? मिलने के लिए चलते ही नहीं । बस पहुँचते हैं । हाँ जब से हमने घर बसाया है, हम शहर छोड़ आये हैं । रास्ते, लैंप पोस्ट, बस की पहली सीट, पापकार्न का कार्नर । कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न ? तुम चुप क्यों हो ? रेखाचित्र देख रही हूँ । 
(३) 
बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक ख़त लिखूँगी । तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है । अल्फ़ाज़ तुम तक पहुँचने के क़दमों के निशान लगते हैं । डर लगता है कोई पीछे पीछे न आ जाये । कितनी पास है मंज़िल पर हमने रास्ते को लंबा कर लिया है । हम मुल्कों में बंट गए हैं । तुम वहाँ मैं यहाँ । मैं बस यही लिखना चाहती हूँ कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए । मैं भी रोना चाहती हूँ । अपने सर्टिफ़िकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर । ये ख़त तुम तक पहुँचने से पहले डाकिया पढ़ लेगा । ज़ालिम है वो । पर तुम तो नहीं हो न । तुम तो मेरे अल्फ़ाज़ों को समझ लोगे न । मैं किससे कहूं । तुम्हारी बातें भी ख़ुद से कहती हूं । थक गई हूं । आमीन !

सरदार पटेल का कुर्मीकरण


सरदार पटेल का कुर्मीकरण

मंडल के बाद के दौर में सरदार बल्लभ भाई पटेल कुर्मियों के नेता भी हैं । उनकी जन्मशताब्दी पर पटना से लेकर उत्तर भारत के उन हिस्सों में जहाँ जहाँ कुर्मी आबादी है वहाँ वहाँ सरदार पटेल की याद में कुर्मी जाति के नेता विद्वान जमा होते हैं । पटेल की जन्मशताब्दी कुर्मी ही मनाते हैं अब । जैसे जाट समाज की किसी भी अधिकार रैली में आप भगत सिंह की तस्वीर देखेंगे । तो आने वाले दिनों में सरदार पटेल का कुर्मीकरण तेज़ी से बढ़ेगा । वे लौह पुरुष जैसे कृत्रिम फ़्रेम में अब और नहीं रह सकते । 
इस देश में जब बनिया समाज की रैली में गांधी का पोस्टर टंग जाता है तो सरदार पटेल क्या चीज़ हैं । 


मोदी को कुर्मी सरदार पटेल की ज़रूरत है ।इसीलिए अहमदाबाद में नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति बनाने जा रहे हैं । ताकि वहां से पटेल की मूर्ति पटना और बरेली में दिखे । अपनी पार्टी के लौह पुरुष से आज़िज आ चुके मोदी गाँव गाँव से लोहा मंगा रहे हैं । इसलिए नहीं कि सरदार की कोई राष्ट्रवादी छवि काम आएगी । इसलिए कि पटेल कुर्मी हैं ।  गोवा में चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन चुने जाने के अगले दो दिनों में मोदी ने पहला काम यही काम किया । सरदार पटेल की आदमकद प्रतिमा बनाने का एलान किया । दो साल से मोदी इस योजना पर काम कर रहे थे । अचानक इसमें इतना व्यस्त हो गए कि आडवाणी को मनाने के लिए दिल्ली तक नहीं आए । अपने कार्यकर्ताओं से कहने लगे कि जाओ गाँव गाँव से गुजरात के हर घर से लोहा ले आओ । घर घर ये ईंट लाने की राजनीति से राम मंदिर नहीं बना सके तो क्या हुआ । कुछ नेताओं की मूर्तियाँ तो बन ही सकती है । लखनऊ में अम्बेडकर की आदमकद मूर्ति और पार्क और अहमदाबाद में कुछ नहीं । क्या मोदी को जातिवादी राजनीति का ज्ञान नहीं है ।

तो मित्रों नीतीश कुमार कौन हैं ? कुर्मी भी हैं । उन्होंने समाज के बड़े नेता सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति बनाई ? मोदी कहेंगे मैं बनवा रहा हूँ । बिहार की रैलियों में इस मूर्ति का ज़िक्र खूब आयेगा । अमरीका के स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी से भी ऊँची । जब बुधवार को पटना में शिवानंद तिवारी ने मोदी के इस क़दम पर हमला किया तो उसका एक मतलब यह भी होगा कि पहले से जवाब तैयार रखना । शिवानंद ने मोदी से सवाल किया कि आप कांग्रेस मुक्त भारत बनाने निकले हैं । पटेल भी तो कांग्रेस परंपरा के हैं । क्या संघ में कोई नेता नहीं जिसकी आदमकद प्रतिमा बन सके । यह सरल बयान नहीं है । मोदी को पटेल से प्यार होता तो आडवाणी को ही ख़ुश करने के लिए उनकी मूर्ति बना देते । लेकिन राजनीति में भक्ति नहीं मौक़ा बड़ा होता है । 


मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर ग़ैर कांग्रेस और कांग्रेस विरोधी राजनीति की ख़ाली होते तमाम छोटे छोटे प्लाट पर दावेदारी के लिए नारा दिया है । कांग्रेस विरोधी सपा बसपा आरजेडी अंत में कांग्रेस के ही काम आए । मोदी इसका लाभ उठाने की रणनीति पर चल रहे हैं । अपनी राष्ट्रीय पहचान को जातिवादी पहचान में घुलने दे रहे हैं । अचानक आप सुनेंगे कि मोदी बैकवर्ड हैं । बनिया हैं । बीजेपी मोदी के सहारे पिछड़े नेताओं को भी चुनौती देगी । सफल होगी कि नहीं मैं नहीं जानता । वोट बैंक से ऊपर उठ कर राजनीति करने का अपना दावा छोड़े वोटों के छोटे छोटे गुल्लक ढूँढने निकल रहे हैं । 

नब्बे के बाद कुर्मियों की हर रैली में सरदार पटेल का पोस्टर होता है । उपेन्द्र कुशवाहा जो कुर्मी-कोइरी युग्म बिरादरी के कोइरी प्रखंड के नेता हैं वे जब भी रैली करते हैं सरदार पटेल के पोस्टर से पटना को भर देते हैं । आजकल नीतीश से नाराज़ हैं । उनसे बाग़ी हो गए हैं । आने वाले कल में मोदी के काम आयेंगे । सरदार पटेल ने राजशाही को समाप्त कर रजवाड़ों को देश में मिलाकर एकता के प्रतीक बन गए । अब उनकी स्टैच्यू आफ़ यूनिटी की मूर्ति नीतीश के पाले से कुर्मियों को तोड़ने के काम आएगी । पर क्या कुर्मी इतनी आसानी से अपने सजीव नेता को छोड़ इतिहास के प्रतीक पर दिल लुटा देंगे ? या पटेल पोस्टर टाँगने के ही काम आते रहेंगे ? मोदी को लगता है कि जब वे बनिया- तेली समाज से आकर गुजरात में पटेलों के नेता बन सकते हैं तो बिहार में क्यों नहीं । देखते हैं । वैसे एक पाठक ने बताया है कि मोदी घांची समुदाय के हैं । बनिया नहीं है और गुजरात में जाति के आधार पर वोट नहीं होता ! कड़वा लेउआ पटेल सम्मेलन ! ख़ैर । गुजरात में नहीं होता होगा मगर बिहार में होता है ।